कानून से शराबबंदी होती तब तो चुनावों में इसका असर होता, बिहार में तो दारू की 'होम डिलीवरी' होती है https://ift.tt/380UgAJ
बिहार के अररिया जिले में जोगबनी नाम की एक जगह है। जब से बिहार में शराब पर प्रतिबंध लगा है, तब से ही जोगबनी में कुछ बेहद दिलचस्प नजारे दिखने लगे हैं। असल में जोगबनी बिलकुल भारत-नेपाल सीमा पर है। दोनों मित्र देश हैं, लिहाजा बॉर्डर खुला ही रहता है और दोनों देश के लोग आराम से दूसरी तरफ आ-जा सकते हैं।
आने-जाने वाले इन लोगों में बड़ी संख्या शराबियों की भी है। बिहार में शराब पीना और शराब पीकर दाखिल होना, दोनों ही अपराध हैं, लेकिन नेपाल में ऐसा नहीं है। जोगबनी में रहने वाले शराब के शौकीनों के लिए नेपाल का इतना नजदीक होना किसी मौके जैसा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि कई बार तो ऐसा होता है कि शराबी जोगबनी से सटी नेपाली सीमा में पहुंचकर जब शराब पीते हैं तो सीमा पर तैनात SSB और पुलिस के जवानों को जानबूझकर दिखा-दिखा कर पीते हैं।
बिहार पुलिस के जो जवान प्रदेश में किसी को भी शराब पीने के आरोप में हजारों का जुर्माना और सालों की कैद करवा सकते हैं, वो जोगबनी के इन शराबियों के आगे बेबस नजर आते हैं। वजह ये कि शराबी भले ही उनसे बमुश्किल 100 मीटर की दूरी पर होते हैं, लेकिन तकनीकी रूप से वे नेपाल की सीमा में पी रहे होते हैं, जहां शराब पीना कोई अपराध नहीं है। लोग बताते हैं कि शराबी अक्सर पुलिस वालों को वहीं से चीखते हुए बता भी देते हैं कि वो नशा उतरने के बाद ही वापस बिहार में दाखिल होंगे।
ये दिलचस्प और हास्यास्पद नजारे इन दिनों बंद हैं, क्योंकि कोरोना के चलते भारत-नेपाल सीमा पूरी तरह से बंद है। अब जोगबनी और इसके आस-पास रहने वाले शराब के शौकीनों के लिए इन दिनों खुलकर शराब पीना मुश्किल हो गया है, लेकिन शराब आज भी इन लोगों को आसानी से मिल जाती है, जितनी बिहार के बाकी लोगों को मिल जाती है।
अररिया के ही रहने वाले कृष्णा मिश्रा बताते हैं, ‘नेपाल बॉर्डर खुला था तो इधर के कई लोग पीने के लिए वहां जाते थे। बिहार में शराबबंदी के बाद नेपाली इलाकों में शराब की बिक्री बेहद तेज हुई है और वहां शराब की कई बंद पड़ी फैक्टरी दोबारा शुरू हो गई हैं। इन दिनों बॉर्डर बंद है तो लोग उधर नहीं जा रहे, लेकिन बिहार में शराब का ‘होम डिलीवरी सिस्टम’ आज भी पूरी तरह से काम कर रहा है।’
कृष्णा जिसे ‘होम डिलिवरी सिस्टम’ बता रहे हैं, वही अब पूरे बिहार में शराब की व्यवस्था बन चुकी है। नीतीश सरकार ने साल 2016 में कानून बनाकर शराब के निर्माण, वितरण, परिवहन, संग्रह, भंडार, खरीद, बिक्री या उपभोग को दंडनीय अपराध तो बना दिया, लेकिन ये कानून सिर्फ कागजों तक ही सिमट कर रह गया। हकीकत में शराब बिहार के कोने-कोने में आज भी सहज उपलब्ध है और इसकी तस्करी करने वाले ग्राहकों को उनके घर पर ही शराब पहुंचा दिया करते हैं।
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स्थानीय लोग बताते हैं कि शराब पर प्रतिबंध लगने के बाद गांव-गांव में देसी शराब बनने की प्रक्रिया भी तेज हुई है और शराब से इतर अन्य नशों के कारोबार में भी तेजी आई है। फरबीसगंज के रहने वाले शौकत अंसारी कहते हैं, ‘केमिस्ट की दुकान पर बिकने वाली नशे की दवाइयां, कफ सिरप और अन्य नशीले पदार्थ बिहार में अब तेजी से बिक रहे हैं। इसके लिए सीधे-सीधे सिर्फ शराबबंदी को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन शराब बंद होने से ऐसे नशों में तेजी जरूर आई है।’
बिहार में शराब बंद होने के चलते प्रदेश सरकार को प्रति वर्ष 4 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की राजस्व हानि हो रही है। इस फैसले को लागू करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि राजस्व को होने वाले नुकसान की भरपाई अन्य जरियों से कर ली जाएगी, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ऐसा हो नहीं सका। शराबबंदी से अपराध में कमी आने के जो कयास लगाए गए थे, उस आधार पर भी शराबबंदी एक कामयाब कदम नजर नहीं आता।
हालांकि, प्रदेश में कई लोग यह जरूर मानते हैं कि शराब पर प्रतिबंध लगने से घरेलू हिंसा के मामले कुछ हद तक कम हुए हैं और कई गरीब परिवारों में कुछ पैसे भी बचने लगे हैं। इस तर्क को नकारने वालों की संख्या भी कम नहीं हैं, जो कहते हैं कि अवैध शराब की सहज उपलब्धता इस फैसले के मकदस पर पानी फेर रही है।
शराबबंदी का फैसला कितना कामयाब रहा, इसकी जांच ऐसे भी की जा सकती है कि इन चुनावों में यह मुद्दा कितना अहम है। सत्ताधारी पक्ष के लोग खुद इस शराबबंदी पर ज्यादा चर्चा करने से बचते नजर आ रहे हैं। नीतीश सरकार के सहयोगी और बिहार के बड़े नेता जीतन राम मांझी खुद भी हाल ही में यह बयान दे चुके हैं कि शराबबंदी कानून ने प्रदेश में सिर्फ गरीबों को ही परेशान किया है। उन्होंने कहा है कि इस कानून के लागू होने के बाद गरीबों, दलितों और आदिवासियों का उत्पीड़न हुआ है, जबकि शराब माफिया आज भी खुले आम घूम रहे हैं। इन लोगों पर पुलिस हाथ डालने से डरती है।
जीतन राम मांझी की बातों का समर्थन आंकड़े भी करते हैं। इस कानून के लागू होने के साल भर के भीतर ही प्रदेश में करीब चार लाख छापे पड़े थे, जिनमें करीब 70 हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया था। इन लोगों में कोई भी बड़े तस्कर शामिल नहीं थे और ये आम जनता के बीच के ही लोग थे, जो तस्करों द्वारा लाई जा रही शराब का सेवन करते हुए पकड़े गए थे।
शराबबंदी का फैसला बिहार में इस हद तक असफल रहा है कि आम लोगों से जब यह पूछो कि शराबबंदी का चुनावों पर क्या असर होगा, तो जवाब मिलता है, ‘शराबबंदी हुई होती तब तो इस मुद्दे का चुनाव पर असर होता। शराब बंद ही कहां हुई है। हर गली हर मोहल्ले में शराब मिल रही है। पहले तो ठेके तक जाकर लेनी होती थी, अब तो घर में ही डिलीवर हो जाती है। हां, ये थोड़ी महंगी जरूर हो गई है।’
इस सब के बावजूद भी बिहार के तमाम नेता ये जरूर मानते हैं कि शराबबंदी का फैसला नीतिगत स्तर पर गलत नहीं था। इसका इस लागू ठीक तरह से नहीं किया जा सका, जिसके चलते बिहार में तस्करी बढ़ी है और शराब आसानी से उपलब्ध है।
नीतीश के धुर विरोधी और महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव भी शराबबंदी के फैसले को नीतिगत तौर पर गलत नहीं बता रहे हैं। वे नीतीश सरकार पर शराब माफियाओं को बढ़ावा देने का आरोप भले ही लगा रहे हैं, लेकिन शराबबंदी के फैसले को वे सही ही बता रहे हैं, क्योंकि इस फैसले के लागू होते हुए वे खुद सरकार का हिस्सा थे और प्रदेश के उप मुख्यमंत्री थे। यही कारण है कि नई सरकार बनने के बाद क्या इस कानून को वापस लिया जाएगा, इस सवाल पर तेजस्वी भी कोई जवाब देने से बच रहे हैं।
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