दो साल बाद उपेंद्र कुशवाहा फिर एनडीए की ओर बढ़े, मन मुताबिक सीटें न मिलीं और अकेले लड़े तो किसका नुकसान करेंगे? https://ift.tt/2RV1jl4
बिहार में एक तरफ एनडीए में जदयू और लोजपा के बीच खींचतान चल रही है, तो दूसरी तरफ महागठबंधन में भी सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। महागठबंधन में टेंशन की वजह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी रालोसपा है। बताया जा रहा है रालोसपा सीटों को लेकर नाराज है। रालोसपा ने 40 से ज्यादा सीटें मांगी हैं, जबकि राजद उसे 10 से 12 सीटें ही देना चाहती है। इसके बाद चर्चा है रालोसपा महागठबंधन से अलग हो सकती है।
रालोसपा पहले एनडीए का हिस्सा थी, लेकिन अगस्त 2018 में अलग हो गई थी। 2015 का चुनाव भी रालोसपा ने एनडीए के साथ मिलकर ही लड़ा था। लेकिन, 2019 का लोकसभा चुनाव उसने राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन में शामिल होकर लड़ा। 2019 में रालोसपा ने बिहार की 5 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी थी।
2013 में बनी रालोसपा पहले एनडीए का हिस्सा थी
उपेंद्र कुशवाहा पहले जदयू में थे, लेकिन नीतीश से अनबन के चलते उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी। जिसके बाद उन्होंने 3 मार्च 2013 को रालोसपा बना डाली। यही वजह थी कि कुशवाहा ने पार्टी शुरू करते वक्त अपना एक ही मकसद बताया था और वो था बिहार से नीतीश के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को उखाड़ फेंकना।
लेकिन, जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो नीतीश एनडीए से अलग हो गए और उपेंद्र जिस एनडीए की सरकार को उखाड़ फेंकने की बात कर रहे थे, उस एनडीए के साथ हो गए।
2014 के लोकसभा चुनाव में रालोसपा 3 सीटों पर लड़ी और तीनों ही जीत गई। उसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में भी रालोसपा एनडीए के साथ मिलकर ही लड़ी। इस चुनाव में रालोसपा को 23 सीटें मिलीं, जिसमें से वो सिर्फ दो सीट ही जीत सकी।
उपेंद्र के लिए जुलाई 2017 में स्थितियां तब बदलनीं शुरू हो गईं, जब नीतीश एक बार फिर एनडीए का हिस्सा हो गए। एनडीए में रहते हुए उपेंद्र कुशवाहा लगातार नीतीश का विरोध करते रहे और आखिरकार अगस्त 2018 में रालोसपा एनडीए से अलग हो गई।
महागठबंधन से नाराजगी के बाद अब एक बार फिर ऐसी चर्चा है कि रालोसपा फिर से एनडीए के साथ जा सकती है। हालांकि, यह भी उतना ही सच है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा के रिश्ते कभी ठीक नहीं रहे हैं।
रालोसपा ने अपने पहले जो दो चुनाव एनडीए के साथ मिलकर लड़े थे, उसमें जदयू साथ नहीं थी। और जब नीतीश 2017 में दोबारा एनडीए में लौटे तो सालभर में ही रालोसपा एनडीए से अलग हो गई।
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार अशोक मिश्रा कहते हैं कि रालोसपा महागठबंधन में जितनी सीटें चाहती है, उतनी उसे मिल नहीं रहीं। ऐसे में वो एनडीए में जा सकती है। हालांकि, एनडीए में भी उसे शायद ही उसके मन मुताबिक सीटें मिल पाएं। नीतीश से कुशवाहा के खराब रिश्ते भी इसकी एक बड़ी वजह होगी।
बिहार में कुशवाहा वोटर कितना मायने रखते है?
नीतीश कुर्मी और उपेंद्र कोइरी जाति से आते हैं। बिहार में कोइरी कुल आबादी में 6 से 7% के आसपास है। रालोसपा के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष नागमणि अक्सर कहा करते थे कोइरी नंबरों के मामले में कुर्मियों से काफी मजबूत हैं।
कोइरी पूरे बिहार में मौजूद हैं। ये अलग बात है कि कहीं भी निर्णायक भूमिका में नहीं आ पाते। अशोक मिश्रा बताते हैं, 'उपेंद्र कुशवाहा बिहार में कुशवाहा के पेटेंट नेता हैं। अगर उपेंद्र को नजरअंदाज किया जाता है, तो कुशवाहा भी नाराज हो जाते हैं।' उनका मानना है कि उपेंद्र जिस भी गठबंधन में जाते हैं, उसे कुशवाहा के ज्यादा से ज्यादा वोट जरूर मिलेंगे।
अगर रालोसपा किसी भी गठबंधन में नहीं जाती और अकेले लड़ती है तो किसे नुकसान होगा? इस सवाल पर अशोक मिश्रा कहते हैं कि अगर उपेंद्र कुशवाहा अकेले चुनाव लड़ते भी हैं, तो भी किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। ऐसा इसलिए क्योंकि कुशवाहा वोटरों में अकेले इतना दम नहीं है कि वो एक भी विधानसभा सीट को अलग से प्रभावित कर सके।
अशोक मिश्रा कहते हैं, बिहार में कई जातियों के अलग-अलग नेता बन गए हैं। उपेंद्र कुशवाहा कभी एक जगह टिककर नहीं रहे, इसलिए अभी तक वे कुशवाहों के नेता भी ठीक तरह से नहीं बन पाए हैं।
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