21 हजार फीट, जहां सांस लेने जितनी ऑक्सीजन भी नहीं, सैनिक को इंजेक्शन देने दवाई निकालती हैं तो बर्फ बन चुकी होती है https://ift.tt/2RJ6XXm
डॉ. कात्यायनी लद्दाख में आईटीबीपी की डॉक्टर हैं। कहती हैं, 'कई बार जब वो अपने सैनिक को इंजेक्शन देने के लिए दवाई बाहर निकालती हैं तो वो बर्फ बन चुकी होती है। सरहद पर जब आईटीबीपी के जवान पैट्रोलिंग पर जाते हैं तो उनकी सेहत डॉ. कात्यायनी के जिम्मे होती है।
माइनस 50 डिग्री तापमान के बीच जब ये सैनिक फॉर्वर्ड पोस्ट पर तैनात होते हैं तो स्नो ब्लाइंडनेस के शिकार हो जाते हैं। घुटने तक बर्फ के बीच घंटों तैनात रहते-रहते इनके पैर जम जाते हैं। और जब मौजे बाहर निकालते हैं तो उनकी उंगलियों की पोरें साथ निकल आती हैं।
माइनस 50 डिग्री तापमान में सिर्फ पानी ही नहीं नसों में बहने वाला खून तक जम जाता था। खून अचानक गाढ़ा होने लगता है, जो जानलेवा तक साबित हो सकता है। सिरदर्द भी हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक जितना खतरनाक हो सकता है। जब बर्फ और माइनस में तापमान पड़ोसी मुल्क से ज्यादा बड़ा दुश्मन हो, तब वहां उनके लिए न सिर्फ सेहत बल्कि हौसला जुटाने का काम करती है आईटीबीपी की मेडिकल टीम।
यूं तो मेडिकल टीम और डॉक्टर्स हमेशा हमारे सैनिकों के साथ सरहद पर तैनात रहते हैं। कहा भी जाता है कि जब एक घायल या बीमार सैनिक डॉक्टर के पास सांस चलते हुए पहुंच जाता है तो फिर वह बिना इलाज के भी ठीक हो जाता है। यूनिफॉर्म पहनने वाले इन डॉक्टर्स की बात ही कुछ खास है। ये पहला मौका है जब आईटीबीपी ने लद्दाख में अपनी फीमेल डॉक्टर्स को सरहद पर तैनात किया है।
डॉ. अन्गमो 2018 में अपना पहला जॉब जम्मू में करने के बाद लद्दाख आई थीं। वो डॉ. कात्यायनी की टीम का ही हिस्सा हैं। कहती हैं, वो लद्दाखी हैं इसलिए उनके लिए यहां रहना आसान है। वरना बाहर से आए डॉक्टर्स के लिए तो बड़ी चुनौती खुद को सेहतमंद बनाए रखना भी होता है।
फोर्स की इन डॉक्टर्स की जिम्मेदारी अपने सैनिकों को हाई एल्टीट्यूड से जुड़ी बीमारियों, ब्रेन स्ट्रोक और कॉर्डिक अरेस्ट से बचाने की होती है। बाकायदा जिसके लिए लेह पहुंचते ही चार स्टेज का मेडिकल चैकअप भी होता है। इन दिनों तो कोविड के प्रोटोकॉल भी उसमें जुड़ गए हैं।
डॉ. कात्यायनी कहती हैं, जवानों को कैसी भी दिक्कत हो, हम तुरंत उनका ब्लड प्रेशर चेक करते हैं, हीमोग्लोबिन भी। और इन दिनों हम कोरोना के कड़े से कड़े प्रोटोकॉल फॉलो कर रहे हैं। 14 दिन के क्वारैंटाइन के अलावा भी हमारी जांच बहुत ही स्ट्रिक्ट होती है।
अकेले आईटीबीपी में लद्दाख में 100 पॉजिटिव केस मिल चुके हैं। और वो नहीं चाहतीं कि किसी भी तरह की लापरवाही बरती जाए। क्योंकि यहां हाई एल्टीट्यूड पर एक छोटी सी बीमारी भी जानलेवा हो सकती है।
पूरे लद्दाख में आईटीबीपी में सिर्फ 3 फीमेल डॉक्टर्स हैं। जिसमें डॉ. कात्यायनी और डॉ. आन्गमो के अलावा डॉ रोहिणी हमपोल भी शामिल हैं। रोहिणी के लिए फॉर्वर्ड पोस्ट पर ड्यूटी कोई नई बात नहीं है लेकिन, लद्दाख में ये पहली बार ही है।
डॉ. रोहिणी कहती हैं, 'कभी अचानक हमें देर रात खबर मिलती है कि पोस्ट पर किसी जवान की तबीयत खराब है। दिन का वक्त हो तो हेलिकॉप्टर का ऑप्शन होता है लेकिन, रात को सड़क से ही हम उस मरीज तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। आधे रास्ते मरीज को लाया जाता है और आधे रास्ते हम जाते हैं। ताकि जल्दी से जल्दी पहुंच सकें। कई बार सैनिकों की जान बचाने के लिए एक मिनट भी बहुत जरूरी हो जाता है।'
जवान को पोस्ट पर हार्ट अटैक आया, उम्र 56 थी, उस पर कोरोना पॉजिटिव
डॉ. कात्यायनी कहती हैं, कोरोना ने हमारी हाई एल्टीट्यूड की चुनौतियों को और ज्यादा बढ़ा दिया है। अभी पिछले अप्रैल की बात है, हमें खबर मिली की हमारे एक जवान को हार्ट अटैक हुआ है। उनकी उम्र 56 साल थी। चुनौती सिर्फ यही दो नहीं थीं। वो कोरोना पॉजिटिव पेशेंट भी थे। हम उन्हें लेह के सरकारी हॉस्पिटल में शिफ्ट करना चाहते थे। वहां वेंटिलेटर और बेहतर सुविधाएं हैं।
लेकिन, किन्हीं वजहों से ऐसा नहीं हो पाया। पूरी रात हमने उन्हें लाइफ सेविंग ड्रग की बदौलत बचाए रखा। हर पंद्रह मिनट में मैं खुद या मेरी टीम का कोई डॉक्टर उस पेशेंट को देखने जाता रहा। सुबह होते ही उन्हें आइसोलेशन पॉट में एयरलिफ्ट कर चंडीगढ़ पीजीआई भेज दिया।
डॉक्टर कहती हैं, 'जब मरीज का शरीर हाई एल्टीट्यूड पर दवाइयों को लेकर रेस्पोंड नहीं करता या फिर उसे बेहतर ट्रीटमेंट की जरूरत होती है तो उन्हें एयर लिफ्ट कर दिल्ली या चंडीगढ़ भेजना होता है। लेह जैसे इलाके में जहां गोलियों से ज्यादा खतरनाक जवानों के लिए हाई एल्टीट्यूड की दिक्कतें हैं, वहां डॉ. कात्यायनी की टीम के जिम्मे हर साल 300 से ज्यादा सैनिकों को एयर लिफ्ट होने तक बचाए रखना होता है।
वो कहती हैं, 'ज्यादातर इमरजेंसी में ही सोल्जर उनके पास पहुंचते हैं। और तब तक हेलिकॉप्टर या फ्लाइट के उड़ान भरने का वक्त निकल चुका होता है। फिर पूरी रात वो और उनकी टीम सिर्फ इसी संघर्ष में लगे होते हैं कि वह उस जवान को सांस चलते सुरक्षित नीचे पहुंचा दे।
उनके मुताबिक जब कोई जवान यहां पहुंचता है, तो हमें उसका मेडिकल चेकअप कर ये पता करना होता है कि वो पूरे एक साल हाई एल्टीट्यूड में सर्वाइव कर पाएगा या नहीं? लेह बेस कैम्प पर पूरे देश से आने वाले जवानों के मेडिकल चेकअप की जिम्मेदारी भी उन्हीं की टीम की है।
डॉ. कात्यायनी बताती हैं, 'जब जवान लंबी दूरी की पैट्रोलिंग पर जाते हैं तो हम उनके लौटने तक इंतजार करते हैं। ये सोचते हुए कि सभी स्वस्थ लौटें।' डॉ. कात्यायनी सेकंड इन कमांड हैं और ये उनकी सातवीं पोस्टिंग है। लेकिन, शायद अब तक की सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण। वो खुद हरियाणा की रहने वाली हैं और यूनिफॉर्म को लेकर उनकी दीवानगी ही उन्हें डॉक्टर बनने के बाद फौज में लेकर आई।
आईटीबीपी ने लद्दाख में चीन से सटी सीमा पर महिला जवानों की तैनाती भी की है। डॉ. कात्यायनी कहती हैं, 'फोर्स में महिला और पुरुष जवानों के बीच कोई भेदभाव नहीं होता, दोनों ही सैनिक होते हैं। दोनों की ही कॉम्बैट ट्रेनिंग होती है। दोनों के लिए ही फिजिकल फिटनेस जरूरी है।
यही नहीं बतौर महिला डॉक्टर उन्हें भी हर छह महीने में फिजिकल टेस्ट देना होता है। जिसमें 3.2 किमी की दौड़, रोप क्लाइंबिंग, जंप, फायरिंग सबकुछ शामिल होता है। तभी जाकर वो डॉक्टर सोल्जर बन पाती हैं।'
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