कोरोना के समय में डिप्रेशन और अकेलापन नई समस्या बन रहा है, इससे लड़ने के लिए मन को शांत रखने का फॉर्मूला भी सीखें
कुछ दिन पहले मेरी एक सहेली का पचासवां जन्मदिन था। इस शुभ दिन बचपन की साथियों ने जूम कॉल अरेंज किया ताकि हम उसे बधाई दे सकें। साथ ही पुरानी यादों वाली फोटो इकट्ठी की गईं, जिसमें खासकर ‘बर्थडे पार्टी’ वाले कई सुनहरे पल देखने को मिले। पैसों की कमी भी थी और साधन भी उपलब्ध नहीं थे। फिर भी बर्थडे एक ऐसा सेलिब्रेशन था, जहां मजा तो आता था, मगर साथ इकट्ठे होने का, सिंपल और टेस्टी खाने का।
मुड़कर देखा तो वो, समय जिसमें टीवी पर दो ही चैनल थे, आज के अनलिमिडेट केबल से ज्यादा सुनहरा लगा। कम था, मगर एक-दूसरे का साथ था। गर्मी की छुटि्टयों में कहां जाना है? अपनी दादी या नानी के घर। मजा शुरू होता था सफर से, जब ट्रेन में हम बोरिया-बिस्तर और ट्रंक लेकर चढ़ते थे। स्टेशन पर उतरो तो कोई परिवारजन रिसीव करने जरूर आता था।
टैक्सी तो छोड़ो मेरे होमटाउन रतलाम में रिक्शा भी नहीं चलता था। हम लोग तांगे में बैठकर जाते थे। एक सरप्राइज ट्रंक में सिर्फ तकिए, चादर, गद्दे भरे हुए थे, जो रात में बाहर आते थे। एडजस्ट कर के सब खुशी-खुशी सो जाते थे। किसी को उम्मीद नहीं थी कि मुझे अपने बिस्तर मिलें। चाचा-बुआ-मामा-मासी के कच्चे-बच्चे इतने कि हमउम्र साथी की कोई कमी नहीं। हां छोटे-मोटे झगड़े भी खूब, मगर प्यार भी।
शादी अटेंड करने का अंदाज भी अलग था। मेरी बुआजी की शादी हुई तो ना किसी हॉल, ना होटल में। हमारे घर के सामने टेंट लगा था (हां, एक दिन के लिए परिवार ने सड़क पर कब्जा कर लिया)। मैं मानती हूं, आज के सिविक सेंस और नियमों के हिसाब से ऐसा अलाउ नहीं होगा। रतलाम में 25 साल पहलेे तांगे बंद हो गए। एक तो रिक्शे और टेम्पो का चलन, दूसरी तरफ शायद आज मैं ही न बैठूं। क्योंकि एनिमल क्रूएलिटी के मुद्दे पर मैं सतर्क हूं, जागरूक हूं।
क्या मैं ओटले पर, पतले से गद्दे पर पतली से चादर लेकर सो सकती हूं? मुश्किल है। इस बदन को ऐशो-आराम की आदत पढ़ गई है। खाने में रोज दाल-चावल, लौकी, भिंडी से भी बोर हो जाऊंगी। जीभ अलग-अलग प्रांतों और देशों का भ्रमण करने की शौकीन जो हो गई है।
शायद हर पीढ़ी को बचपन के दिन ज्यादा ही शानदार लगते हैं। क्योंकि वो एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो है, जिसे हम अपने दिमाग के पेंटबॉक्स से खूब रंगीन बना सकते हैं। लेकिन कहीं न कहीं एक चाहत भी है कि चलो प्रोग्रेस तो जरूरी है। पर उस मुकाम पर बढ़ते हुए शायद हमने बहुत कुछ खो दिया है।
आज क्या आपका ऐसा कोई दोस्त है, जिसके घर आप बिना निमंत्रण, यूं ही टपक सकते हो? कोई ऐसा रिश्तेदार, जो ये न पूछे कि भाई रिटर्न टिकट कब का है। कोरोना ने दुनिया को अपने कब्जे में किया है, तो दूसरी तरफ अकेलापन भी इतना फैल गया कि किसी के जाने के बाद ही पता चलता है कि आदमी कितना दुखी था।
आज सोशल मीडिया के नाम पर आपके 500 दोस्त हो सकते हैं, मगर जब जरूरत है, तो एक भी अपना नहीं। फेसबुक पर सिर्फ हंसते-खेलते फोटो मिलेंगे, जबकि डॉक्टर कहते हैं कि डिप्रेशन की बीमारी घर-घर में है। पर इस बीमारी की पहचान और इलाज पर ध्यान आज भी कॉमन नहीं है।
बच्चा स्कूल में एल्जेब्रा और जियोमेट्री तो सीखता है, पर अपने मन को शांत और स्थिर रखने का फॉर्मूला नहीं, घर में, दफ्तर में, जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। अपने अंदर क्रोध या उदासी के इमोशन को समझना और सुलझाना।
कचरा जैसे घर से रोज निकलता है, मन का कचरा भी उसी तरह फेंक दें। किसी ने कुछ कह दिया तो उसे जिंदगीभर का बोझ बना कर न चलें। हमें मालूम नहीं, उनके फेसबुक की स्माइलिंग फोटो के पीछे क्या गम हैं। वो इंसान भी प्यार का भूखा है। मगर क्या हम खुद इतने कंप्लीट हैं कि दूसरों की तरफ ध्यान दे सकें? घर आपका बड़ा है, पर दिल कितना बड़ा है, इसपर गौर करें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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